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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


मनोवृत्ति मुंशी प्रेम चंद

4
दो देवियाँ- एक वृद्धा, दूसरी नवयौवना, पार्क के फाटक पर मोटर से उतरी और पार्क में हवा खाने आयी। उनकी निगाह भी उस नींद की मारी युवती पर पड़ी।
वृद्धा ने कहा- बड़ी बेशर्म है।
नवयौवना ने तिरस्कार-भाव से उसकी ओर देखकर कहा- ठाठ तो भले घर की देवियों के हैं?
'बस, ठाठ ही देख लो। इसी से मर्द कहते है, स्त्रियों को आजादी न मिलनी चाहिए।'
'मुझे तो वेश्या मालूम होती हैं।'
'वेश्या ही सही, पर उसे इतनी बेशर्मी करके स्त्री-समाज को लज्जित करने का क्या अधिकार है?'
'कैसे मजे से सो रही हैं, मानो अपने घर में हैं।'
'बेहयाई हैं। मैं परदा नहीं चाहती, पुरुषों की गुलामी नही चाहती, लेकिन औरतों में जो गौरवशीलता और सलज्जता हैं, उसे नहीं छोड़ती। मैं किसी युवती को सड़क पर सिगरेट पीते देखती हूँ, तो मेरे बदन में आग लग जाती हैं। उसी तरह आधी का जम्फर भी मुझे नही सोहाता। क्या अपने धर्म की लाज छोड़ देने ही से साबित होगा कि हम बहुत फारवर्ड हैं? पुरुष अपनी छाती या पीठ खोले तो नहीं घूमते?'
'इसी बात पर बाईजी, जब मैं आपको आड़े हाथों लेती हूँ, तो आप बिगड़ने लगती हैं। पुरुष स्वाधीन हैं। वह दिल में समझता है कि मै स्वाधीन हूँ। वह स्वाधीनता का स्वाँग नहीं भरता। स्त्री अपने दिल में समझती रहती है कि वह स्वाधीन नहीं हैं, इसलिए वह अपनी स्वाधीनता को ढोंग करती हैं। जो बलवान हैं, वे अकड़ते नहीं। जो दुर्बल हैं, वही अकड़ करती हैं। क्या आप उन्हें अपने आँसू पोंछने के लिए इतना अधिकार भी नही देना चाहती?'
'मैं तो कहती हूँ, स्त्री अपने को छिपाकर पुरुष को जितना नचा सकती हैं अपने को खोलकर नहीं नचा सकती।'
'स्त्री ही पुरुष के आकर्षण की फ्रिक़ क्यों करें? पुरुष क्यों स्त्री से पर्दा नहीं करता।'
'अब मुँह न खुलवाओ मीनू! इस छोकरी को जगाकर कह दो- जाकर घर में सोये। इतने आदमी आ-जा रहे हैं और यह निर्लज्जा टाँग फैलाये पड़ी हैंय़ यहाँ नींद कैसे आ गयी?'
'रात कितनी गर्मी थी बाईजी। ठंड़क पाकर बेचारी की आँखें लग गयी हैं।'
'रात-भर यहीं रही हैं, कुछ-कुछ बदती हैं।'
मीनू युवती के पास जाकर उसका हाथ पकड़कर हिलाती हैं- यहाँ क्यों सो रही हो देवीजी, इतना दिन चढ़ आया, उठकर घर जाओ।
युवती आँखें खोल देती हैं- ओ हो, इतना दिन चढ़ आया? क्या मैं सो गयी थी? मेरे सिर में चक्कर आ जाया करता हैं। मैने समझा शायद हवा से कुछ लाभ हो। यहाँ आयी; पर ऐसा चक्कर आया कि मैं इस बेंच पर बैठ गयी, फिर मुझे होश न रहा। अब भी मैं खड़ी नहीं हो सकती। मालूम होता हैं, मैं गिर पड़ूँगी। बहुत दवा की; पर कोई फ़ायदा नही होता। आप डॉक्टर श्याम नाथ को आप जानती होगी, वह मेरे सुसर हैं।
युवती ने आश्चर्य से कहा- 'अच्छा! यह तो अभी इधर ही से गये हैं।'
'सच! लेकिन मुझे पहचान कैसे सकते हैं? अभी मेरा गौना नही हुआ है।'
'तो क्या आप उसके लड़के बसंतलाल की धर्मपत्नी हैं?'
युवती ने शर्म से सिर झुकाकर स्वीकार किया। मीनू ने हँसकर कहा- 'बसन्तलाल तो अभी इधर से गये है? मेरा उनसे युनिवर्सिटी का परिचय हैं।'
'अच्छा! लेकिन मुझे उन्होंने देखा कहाँ हैं?'
'तो मै दौड़कर डॉक्टर को ख़बर दे दूँ।'
'जी नहीं, किसी को न बुलाइए।'
'बसन्तलाल भी वहीं खड़ा है, उसे बुला दूँ।'
'तो चलो, अपने मोटर पर तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचा दूँ।'
'आपकी बड़ी कृपा होगी।'
'किस मुहल्ले में?'
'बेगमगंज, मि. जयराम के घर?'
'मै आज ही मि. बसन्तलाल से कहूँगी।'
'मैं क्या जानती थी कि वह इस पार्क में आते हैं।'
'मगर कोई आदमी साथ ले लिया होता?'
'किसलिए? कोई जरूरत न थी।'

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